Sunday 10 January 2016

क्या पित-पत्रकारिता और मुख़ालिफ़ राजनीति का दबाव हमें युद्ध के निकट ला रहा है?




पठानकोट में जो हमला हुआ उसका ध्येय भारत-पाक रिश्तों को ज़ख़्मी करना और शांति वार्ता को भंग करना था। नए साल के दूसरे हीं रात को क़रीब 3:30 बजें हमला किया गया दुश्मन पूरी तैयारी के साथ आए उन सबने आर्मी के क़ौमबँट यूनीफ़ॉर्म पहने थे, उनके पास भारी मात्रा में असला बारूद भी थे। क़रीबन 38-40 घंटे के अथक परिश्रम के बाद सारे फ़िदायीन मारे जाने की पुष्टि हो पाईं। इन सब में दुर्भाग्यपूर्ण रूप से हमारे 7 जवान जिसमें लेफ़्ट. कर्नल निरंजन भी शामिल है वीरगति को प्राप्त हुए। ये पहला मौक़ा नहीं है जब पाकिस्तान ने हमारे पीठ पर वार किया है। 1999 का कारगिल का युद्ध, या 2001 में संसद भवन पर हमला, या जुलाई 2006 में मुंबई ट्रेन धमाका, या 2006 वनारस में हमला, या फिर 2008 का दहलादेनेवाला मुंबई पर सुनियोजित हमला। सारे हमले इस बात की वकालत करते है की पाकिस्तान शांति और एकता जैसे मूल्यों को कोई तवज्जु नहीं देता है। पाकिस्तान से भारत ने जितने बार शांति वार्ता करनी चाही उतनी बार मुँह की खाईं हैं। सरहद के उस पार से घुसपैठ कभी रुकीं नहीं और नाहीं पाकिस्तान ने शांति संधियों का कभी पालन किया। सरहद के उस पार से लगातार युद्धविराम संधि को तोड़ा गया।
जब आतंकवादियों ने हमला किया तब से लेकर उन सबके मारे जाने की पुष्टि होने तक हर न्यूज़ चैनल सरकार के कार्यनीति का विश्लेषण करने में व्यस्त था। कही-कही तो सेना द्वारा अपनाईं गई नीतियों का भी खंडन किया गया। इन चैनलों के सुरक्षा विश्लेशक अपनी टिप्पणी देने से भी नहीं चुके। क्या इसे सही मायने में प्रत्यक्षवादी पत्रकारीता कहेंगें? जहाँ भारत माँ के लाल ख़ून की होली खेल रहे हों वहाँ ये फ़र्ज़ तो बिलकुल नहीं बनता कि ऐसी बात कर के उनका मनोबल घटाया जाए। अगर नीति बनाने वालों से या उनपे अमल करने वाली में कोई चूक हुई भी हो तो उसका अन्वय करने के लिए क्या ऐसा समय यथोचित है? चर्चा ये भी चली की इंटेलिजेन्स को इस घटना के होने की सूचना पहले से थीं और सेना बलों को चौकन्ना रहने के आदेश दिए गए थे पर भी सुरक्षा में इतनी बड़ी सेंध कैसे लगी? विपक्ष ने सवाल उठाए रक्षा विशेषज्ञों ने सवाल खड़े किए, ये सब ठीक है लेकिन क्या आतंकवादीयों के मारे जाने तक सैनिकों मनोबल ऊँचा रखना हमारी ज़िम्मेदारी नहीं थीं?
अभी हाल में हमारे प्रधानमंत्री एकाएक पाकिस्तान के दौरे पर गए। जिस पर विपक्ष ने कई सवाल खड़े किए लेकिन फिर भी नवाज़ शरीफ़ की मेहमान नवाज़ी देख कर लगा कि बहुत सारी मुश्किलें का हल होजाएगी लेकिन हमने पाकिस्तान के सामने जब भी शांति का प्रस्ताव रखा है तब-तब तोहफ़े के रूप में वापस सिर्फ़ आतंकवाद ही मिला है और इस बार क्या अलग हुआ। पाकिस्तान उन चुनिंदा देशों में से एक है जिसे दुनिया आतंकवाद के प्रयोजक के रूप में जानती है। हिंदुस्तान से प्रतिशोध लेने की चाह में कई आतंकवादी संगठनों का लालन-पालन पाकिस्तान करता आया हैं। इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेन्स (आई॰एस॰आई॰) को भी जन्म दिया गया जो आतंकवादी संगठनों से गहरी साख रखता हैं यह सब भारत की यंत्रना बढ़ाने के पाकिस्तान के यंत्र हैं। अब बात यह है कि उनके गले में ऐसी हड्डी अटकी है जो ना निगलते बन रही है ना उगलते। अगर पाकिस्तान का आला-कमान शांति चाहे भी तो भी उनके सिपहसलार ऐसा होने नहीं देंगे और भारत में ऐसी गतिविधियाँ करते रहेंगे जिससे शांति कि कोशिश कभी कामयाब ना हो सके। ग्रैंट होल्ट एवं डेविड ग्रे ने अपने ग्लोबल सिक्योंरिटी स्टडी 2 नामक रिपोर्ट में तो ये तक शिफ़ारिश की हैं कि आई॰एस॰आई॰ ऐसी एजेन्सी है जो आतंकवादी संगठनों को पाकिस्तान के विदेश नीति का प्रतिनिधि बनाने और दूसरे देशों के ख़िलाफ़ कोवर्ट आपरेशन करने एवं देश की राजनीति में दख़ल देने में इस्तमाल करने का विशेषज्ञ हैं।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के तरफ़ से ये बयान आया तो है के वे इस घटना के लिए कड़ी और ततत्कालीन कार्यवाही करेंगे।लेकिन स्थाई शांति के लिए सफल प्रयास शब्दों से नहीं बल्कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ सैन्य कार्यवाही से और दोहरे रवैए को ख़त्म कर के ही होंगे। देखना यह है कि क्या इस बार पाकिस्तान श्वेत भविष्य के लिए सच में कुछ करता हैं या फिर कल की कहानी फिर से दोहराएगा हैं।

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