Wednesday 1 June 2016

कंडोम की क्या ज़रूरत!? शतमुर्ग रवैया बनाता है शिकार!

कंडोम या निरोध एक पुरुष गर्भनिरोधक है, इसे भारत में टोपी या छतरी के नाम से भी पुकारा जाता है। कंडोम गर्भनिरोधक होने के साथ साथ यौन संचारित रोग जैसे एच आई वी, एड्ज़ से सुरक्षा प्रदान करने का काम भी करता है।

कंडोम के उपयोग
गर्भनिरोधक
यौन संचारित रोगों की रोकथाम

कंडोम से लव-हेट का नाता
हम सब जानते है, एड्स जैसी कई यौन संक्रमण वाली बीमारियों से कंडोम बचा सकता है। यह जानकारी होने के बावजूद इसके प्रचार और इस्तेमाल को लेकर इतना शर्मीला रवैया क्यों? 

एचआईवी का खतरा और कॉंडम
ड्स से हमें क्या लेना देना। मुझे कभी एड्स नहीं हो सकता। यह तो पैसे बनाने की अंर्तराष्ट्रीय साजिश है, इस से ज़्यादा भयावह तो कई सारे रोग है। हमसे ज़्यादा एड्स पीड़ित तो अफ्रीका में हैं। यही मानते हैं न आप? अब चौंकिए! 

यूएनऐडस की हालिया रपट के मुताबिक विश्व भर में 2005 के अंत तक 386 लाख एचआईवी संक्रमित लोग हैं, सिर्फ एशिया में ही 83 लाख ऐसे लोग हैं और इस की दो तिहाई संख्या भारत में बसती है। जी हाँ, हम दक्षिण अफ्रीका से आगे निकल चुके हैं। भारत अब विश्व की सर्वाधिक एचआईवी संक्रमित जनसंख्या वाला देश बन गया है।

खुल कर बात जरूरी
सेक्स के बारे में आज भी खुलकर बात नहीं होती. सेक्स से संबंधित साहित्य, फिल्में या पॉर्नोग्राफिक वीडियो की बढ़ती बिक्री इस बात का प्रमाण हैं कि लोगों की इस विषय में बहुत अधिक दिलचस्पी तो है, लेकिन सुरक्षित सेक्स, यौन संक्रमणों या गर्भापात जैसे विषय अब भी टैबू समझे जाते हैं.

फीमेल कंडोम
आसानी से उपलब्ध होने के बावजूद पश्चिमी देशों तक में अभी महिलाओं के लिए बने खास कंडोम को ज्यादा लोकप्रियता नहीं मिली है. एड्स के गंभीर खतरे का सामना करने वाले अफ्रीकी देश मोजांबिक में कुछ एनजीओ फीमेल कंडोम को बढ़ावा देने पर जोर लगा रहे हैं. महिला कंडोम 17 सेमी. (6.5 इंच) लम्बी पोलीउस्थ्रेन की थैली होती है। सम्भोग के समय पहना जाता है। यह सारी योनि को ढक देती है जिससे गर्भ धारण नहीं होता और एचआईवी सहित यौन सम्पर्क से होने वाले रोग नहीं होते।

एड्स को मिटाएगी जानकारी 
दुनिया भर के मेडिकल विशेषज्ञ इस बात को मानते हैं कि 50 साल के अंदर एड्स को पूरी तरह मिटाना संभव है. लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल है कि इसके खतरे वाले हाई-रिस्क ग्रुप को सुरक्षित और शिक्षित किए बिना ऐसा मुमकिन नहीं होगा.

सुपर कंडक्टिव - ग्रैफीन कंडोम
कंडोम के क्षेत्र में नई नई खोजें हो रही हैं. 2004 में जिस अति प्रवाहकीय, अति मजबूत पदार्थ ग्रैफीन की खोज के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था, अब उसका एक महत्वपूर्ण इस्तेमाल सामने आया है. इससे बेहतर कंडोम बनाने की कोशिश हो रही है.

लेटेक्स का स्रोत
दुनिया भर के करीब 40 फीसदी कंडोम लेटेक्स से बनते हैं. लेटेक्स रबड़ के पेड़ों से निकाला जाता है. ब्राजील के अमेजन के जंगल और चीन में इनका बहुत बड़ा भंडार है.

ज्यादातर पुरूष गलत तरीके से कंडोम पहनते हैं। वहीं बहुत से पुरूष कंडोम पहनना पसंद नहीं करते। आजकल छोटी उम्र की लड़कियों से लेकर उम्रदराज स्त्रियों तक सभी के द्वारा कंडोम को सबसे सुरक्षित गर्भनिरोधक के रूप में उपयोग किया जा रहा है। प्रथम-हर वर्ग और जगह के आम-ओ-खास लोगों में कंडोम को सबसे सुरक्षित गर्भनिरोधक के रूप में मिल चुकी मान्यता। दूसरा-गर्भनिरोधक गोलियों का मंहगा होने के साथ, उनके साइड इफेक्ट का डर और तीसरा-कंडोम के दुष्प्रभावों के बारे में, विशेषकर स्त्रियों में अज्ञानता। 

Saturday 28 May 2016

कोचिंग इन्स्टिटूट्स में घुन की तरह पिसते छात्र और एक असमर्थ शिक्षा प्रणाली!


एंट्रन्स की कोचिंग अब यह कोई विकल्प नहीं अनिवार्यता है; यह लगभग बाध्य हो गया है की स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे कोचिंग क्लॉसेज़ जाए। बच्चे आजकल पाठ्यक्रम की अवधारणाओं के बारे में आश्वस्त महसूस नहीं करते और शिक्षक स्कूल में बच्चों को तवज्जु नहीं देते यह भी आश्चर्यजनक नहीं ताकि प्राइवट टूइशन की भीड़ कम ना हों। आपने नीट इग्ज़ाम के बारे में सुना ही होगा? कई अभिभावक परेशान भी होंगे अपने बच्चों के भविष्य को लेकर और कई छात्र असमंजस में होंगे की उनका क्या होगा!

आजकल मेडिकल और आइ.आइ.टी. में दाख़िला पाने की होड़ मची हैं और इस प्रवृति का मोटा फ़ायदा उठाना नामी कोचिंग क्लास बख़ूबी जानते है। छोटे या बड़े सभी शहरों में इस तरह के इन्स्टिटूट्स मिल जायेगा जो बच्चों के सुनहरे भविष्य के लुभावने वादे करते हैं। हर साल देश भर से 50,000 से अधिक छात्र अभिभावकों के दबाव के तहत, कोटा के कोचिंग संस्थानों में दाखिला लेते है। नदी के किनारे बस शहर बहु ​​अरब डॉलर कोचिंग उद्योग की राजधानी बन गया है। छात्र छोटे-छोटे कमरों में रहते है और दिन के लगभग 16 घंटे, कक्षाओं में पढ़ने या प्रश्न पत्रों से निपटने में खर्च करते है।

माता-पिता अपने बच्चों के समृद्धि के लिए, उन्हें फास्ट ट्रैक पर लाने और बेहतरीन शैक्षिक संस्थानों में उन्हें पढ़ता देख पाने के लिए सभी यथासंभव प्रयत्न करते हैं। एक जिन जो इस आकांक्षा को एक उद्योग में बदल देता है और पैदा होते हैं 'कोचिंग क्लासेस'। यह औपचारिक रूप से एक उद्योग के रूप में मान्यता प्राप्त तो नहीं है परंतु कोचिंग सेक्टर एडीबी की रिपोर्ट के अनुसार अरबों डॉलर से अधिक मूल्य का होने का अनुमान लगाया गया है। कोचिंग उद्योग भी रोजगार उत्पन्न करता है। यह अनियमित और अधिकांश भाग के लिए असंगठित है लेकिन कितने लोगों का अनुमान लगाना मुश्किल है।

आज कल रोज़ ही किसी बच्चे ख़ुदकुशी की ख़बर आती है तब हम अपने टीवी चैनल चेंज करने के लिए रिमोट की तलाश करते है कि कही ऐसी ख़बर हमारे बच्चे ना सुन ले और उनपे ग़लत प्रभाव पड़े। पर क्या यह करना पर्याप्त है?
हमारी शिक्षा प्रणाली इतने दुर्बल है कि उसके भार तले बच्चों का दम घुटने लगा है। सिर्फ़ कोटा ही नही बल्कि पूरे देश में बच्चे एंट्रन्स इग्ज़ैम के बोझ से झुके हुए है। बच्चे इस भार को उठाने में अक्षम रहते है तो अभिभावक भी सोचते है की कोचिंग ही एक मात्र पर्याय है। 
एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2007-08 में ग्रामीण भारत में रहने वाले छात्रों ने 1,456 रुपये भुगतान कियाऔर शहरी भारत में निजी कोचिंग के लिए 2349 रुपये प्रत्येक माह भुगतान किया। 

अत्यधिक फीस

शहरी केंद्रों में ट्यूशन फीस-कोचिंग क्लास के स्तर पर और स्थान के आधार पर बदलती हैं। 
प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए कोचिंग इन्स्टिटूट्स फीस के तौर पर मोती रक़म वसूलते है जो 1.2 लाख रुपये सालाना से लेकर दो साल के लिए रुपये 2.8 लाख तक हो सकती है।

अंततः अमीर और वंछित छात्र  में जनसंख्या विभाजित; यह शिक्षा प्रणाली शिक्षकों को कम जिम्मेदार बनाती है। भारतीय स्कूली शिक्षा प्रणाली, तेजी से बढ़ते कोचिंग उद्योग के कारन और पीछे जा रही है। इस सब में घुन की तरह पूस रहा है तो वह है छात्र।

By:
Dr. Rajan Pandey
M.B.B.S., M.D. Radio-Diagnosis(schol.),
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Tuesday 19 April 2016

हाय तौबा समलैंगिकता!!! भारत में समलैंगिकता विवाद और आम धारणाए!


समलैंगिकता को परिभाषित करना महत्वपूर्ण है क्योंकि आम धारणाए संप्रेषित करना अनैतिक है। समलैंगिकता सिर्फ़ एक लिंग के सदस्यों के बीच यौन सम्बंध नहीं है बल्कि सही मायने में समान लिंग के लोगों में आकर्षण और रुचि को हम समलैंगिकता कहते है। समलैंगिकता उनसे भिन्न है जो कभी-कभी अन्य पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाते है लेकिन अन्यथा विषमलैंगिक जीवन जीते है, उनसे जिनके लिए उनके यौन वरीयता उनकी पहचान का प्रमुख हिस्सा है? यह एक आम धरना है की समलैंगिक सम्बंध छल, कुंठा या हताशा के परिणाम के स्वरूप होता हैं पर ये सही नहीं है। 

भारत में होमोसेक्शुअलिटी (समलैंगिकता) एक विवादित मुद्दा है, लेकिन कोई निष्कर्ष निकालने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है की हर शख्स को खुद को अभिव्यक्त करने की पूरी आज़ादी मिलना उसका अधिकार है। हाल हीं में शशि थरूर ने समलैंगिकता को संवैधानिक करने के लिए निजी सदस्य विधेयक सेक्शन 377 को फिर से चर्चा में लाया, लेकिन यह दूसरी बार है कि यह विधेयक सदन द्वारा इसे नकारा गया।
 
भारत में इस मुद्दे पर बहस बहुत लंबे समय से चल रही है। कई संस्थाएं समलैंगिक हितों के लिए काम कर रही हैं। फिर भी इसे सामाजिक मान्यता अभी तक नहीं मिली है। गुजरात के राजपीपला के प्रिंस मानवेंद्रा सिंह गोविल ने 2006 में अपने होमोसेक्शुअल होने की बात स्वीकारी थी। ओप्रा विन्फ़्रे के शो में अपनी कहानी सबसे शेयर की थी। जिसके बाद मानवेंद्र को उनके परिवार ने बेदखल कर दिया है। क्या यह सही है की किसी के लैंगिक रुझान के कारण उसे प्रताड़ित और दण्डित करे?

एल॰जी॰बी॰टी॰ क्या है?
एलजीबीटी का अर्थ है लेज़्बीयन, गे, बाइसेक्शूअल, त्रांसजेंडर। भारत में एलजीबीटी, समलैंगिकता और एलजीबीटी अधिकारों को बढ़ावा देने और इसे क़ानूनी बनाने के लिए हाल के दिनों बहुत प्रयास हुए है। आज तक कोई व्यक्ति भारतीय इतिहास में समलैंगिकता के लिए क़ानून द्वारा नहीं मारा गया है। लोग समलैंगिकता विरोधी कानूनों के तहत गिरफ्तार किए गए है जबकि, कोई व्यक्ति आजादी के बाद समलैंगिकता के कारण सिद्धदोशि नहीं हुआ है। 

भारत का इतिहास क्या कहता है?
कई धर्मशास्त्रों में समलैंगिक आचरण की उपस्थिति ज़रूर दर्ज है, परंतु उनके द्वारा अनुमोदित नहीं है। भारतीय महाकाव्यों और इतिहास में, समलैंगिकता का याद-कदा जिक्र रहा हैं। उदाहरण के लिए, 
वाल्मीकि कृत रामायण में हनुमान जी देखते है की राक्षस महिलाएँ जो रावण चूमती है, वह आपस चुंबन कर रही है। 
महाभारत में द्रुपदरु शिखंडिनी नामक पुत्री को जन्म देते है और उसे एक लड़के के तरह पलते-पोसते है और वयस्क होने पे उसका विवाह एक दूसरी स्त्री से करवा देते है। 
शास्त्रों के अनुसार कलियुग जो लौकिक जीवन काल का अंतिम चरण है। इसी काल में यौन अनियमितताओं के सभी रूप घटित होंगे। पुरुष अप्राकृतिक छिद्रों में वीर्य जमा करेंगे (मुँह? गुदा?)। 
कामसूत्र में पुरुष अंगमर्दक द्वारा मुख-मैथुन (औपराष्टिका) की मौजूदगी भी दर्ज है।

क्या कहता है क़ानून?
भारतीय दंड संहिता का अध्याय XVI, की धारा 377 सन 1860 की है, ब्रिटिश शासन के दौरान बनाया गया यह क़ानून आज अपना वजूद तलाश रहा है। "प्रकृति के खिलाफ यौन गतिविधियों" को यह क़ानून ग़ैरक़ानूनी क़रार देता है, जिसमें तथाकथित तौर पे समलैंगिक गतिविधियों आती है। उल्लेखनीय है कि आईपीसी की धारा 377 अक्टूबर 1860 से ही कानून का हिस्सा है। आजादी के बाद से 1860 की इस दंड संहिता में खासे बदलाव नहीं किए गए हैं। सामाजिक प्रभाव के चलते धारा 304-बी के तहत दहेज-हत्या और 498-ए के तहत महिलाओं के खिलाफ हिंसा संबंधी प्रावधानों को इसमें जोड़ा गया है। बलात्कार संबंधी धारा 376 में समय-समय पर हुए बदलावों के बावजूद धारा 377 में संशोधन नहीं किया गया। इससे साबित होता है कि सरकार और संसद ने कभी भी इस धारा को यथोचित महत्व नहीं दिया। 
इस अनुभाग पर दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा जुलाई 2009 में सहमत वयस्कों की समलैंगिकता को क़ानूनी मान लिया था परंतु 12 दिसंबर 2013 उच्चतम न्यायालय ने पुनः निर्देश दिए जिसमें इसे वापस पलट दिया गया और कहा गया कि धारा 377 को निरस्त करने के लिए न्यायालय ने यह मामला संसद के लिए छोड़ दिया है।


होमोसेक्सुअलिटी से संबंधी तथ्य 

जब पुरूष को पुरूष की तरफ और महिला का महिला की तरफ झुकाव हो तो उसे होमोसेक्सुअल गे/लेस्बियन कहते हैं। इस स्थिति में लोग अभिन्न लिंग की तरफ आकर्षित होते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो महिलाओं और पुरूषों दोनों की तरफ आकर्षित होते हैं। उनको बाईसेक्सुअल कहा जाता है। किसी को विपरीत सेक्स, किसी को समान सेक्स और किसी को महिला और पुरूष दोनों की तरफ आकर्षण होता है। तीनों ही प्रकार के लोग नार्मल हैं। 
मॉडर्न साइंस के अनुसार समलैंगिकता की प्रवृत्ति पैदाइशी होती है। न तो इसमें ऐसे लोगों का कसूर होता है और न ही माता-पिता की परवरिश और नाहीं समाज का बहुत ज़्यादा योगदान रहता है। एक  शोध में पाया गया है की जहां मां शासी और पिता दबे हुए होते हैं, वहां संतान के समलैंगिक होने की संभावना ज्यादा होती है। दरअसल मेडिकल साइंस के अनुसार दिमाग के अंदर पाई जाने वाली पिट्यूटरी ग्लैंड या पीयूष ग्रंथि जो सेक्स हार्मोंस के रिलीज को नियंत्रित करती है, कई बार ये हार्मोंस अधिक मात्रा में तो कभी कम मात्रा में रिलीज होता हैं जिसके कारण विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण होता है। आदमी के दिमाग के अंदर किसी नयूरोंस में अगर कोई  तब्दीली आ जाती है तब हार्मोन का संतुलन अपने-आप बिगड़ जाता है जिससे होमोसेक्सुअलिटी की भावना उत्पन्न हो जाती है।
समलैंगिक लोगों में बदलाव तभी मुमकिन है, जब वह अपनी मर्जी से अपने-आप को बदलना चाहे। लेकिन परिवार या समाज के दबाव में ऐसा कर पाना मुश्किल है। एक व्यापक मिथक है कि अगर ऐसे लोगों को परिणय सूत्र में बाँध दे तो सब ठीक होजायेगा लेकिन ऐसा करना उनके और उनके भागी के साथ धोखा होगा। होमोसेक्सुअलिटी के लिए परवरिश भी जिम्मेदार हो सकती है जैसे बचपन से यौन उत्पीड़न। ऐसा भी पाया गया है की बढती उम्र के दौरान बच्चे का को-एड स्कूल में न पढ़ने से लडके कभी कभी लडकियों के प्रति सहज रूप से कम आकर्षित हो सकते है। लेकिन यह होमोसेक्सुअलिटी के लिए पूर्ण रूप से जिम्मेदार कारक नहीं है।

होमोसेक्सुअलिटी को एड्स के लिए काफी हद तक जिमेदार माना जाता है। आमतौर पर यदि कोई लड़का किसी ऐसे लड़की के साथ सेक्स करे जिसे एड्स हो तो एड्स होने की संभावना लगभग 35 प्रतिशत तक होती है, वहीं दूसरी तरफ यदि एक लडका किसी एड्स पीडित लडके के साथ गुड-सम्भोग करे तो एड्स होने की संभावना 100 प्रतिशत तक होती है।  

यह बात अच्छी तरह समझनी होगी कि पर्सनेलिटी और किसी जेंडर को पसंद करने या न करने की बात तय करने में जेनेटिक फैक्टर व अन्य प्रकृतिक कारक काम करते है। इसमें किसी परंपरा या सामाजिक मूल्यों का कोई योगदान नहीं होता। ऐसी स्थिति में कानून की धारा समाप्त कर, समलैंगिकों को कुछ अधिकार देकर हम समाज की सात्विकता विद्वास्त नहीं करेंगे अपितु जो छुप-छुपा कर हो रहा है, जिससे कि बीमारी होने के ज़्यादा ख़तरा है उसे रोकने में सफल होंगे। ऐसा करने से समलैंगिक लोगों के अधिकारों को भी हम प्रतिश्स्थापित कर सकेंगे। अगर समलैंगिक लोगों को सामाजिक सुरक्षा का आभास हो तो उसने हर्ज क्या है!

By: 
Dr. Rajan Pandey  
M.B.B.S., M.D. Radio-Diagnosis(Schol.), 
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Wednesday 23 March 2016

HOLI BRINGING COLORS INTO LIFE BUT BE AWARE OF CHEAP CHEMICAL COLORS CAUTION


It's Holi fervor time which of course is incomplete without colors, but the cheap colors are made of harmful chemicals like lead, glass pieces etc. In ancient times in absence of chemicals people celebrated the festival with colors made naturally. These herbal colors posed no threat the the health.

Ahead of the festival of colors, The markets are brimming with an array of colors in the form of gulal, dyes and sprays. 

But What's Holi without colors?

These colors can cause dermatitis which results in 24-hour itching, subsequent rashes and swelling. These heavy metals, synthetic colors and dyes used for making colors can cause eye problems like corneal ulcer, conjunctivitis and trigger allergy in which the pus maybe formed and a person may be rendered totally blind. Colors in the form of pastes have toxic compounds mixed in a base of engine oil or other inferior quality oil, capable of causing skin allergy, temporary blindness. 

The chemical colors came into vogue as they are convenient and cost effective options against the natural colors for makers. These days they mix harmful chemicals in colors and play with the health of the consumers for the sake of profit. The chemicals added by them are so injurious that if unfortunately they enter a human body, they may cause fatal infections. 

How are colors synthesized chemical?
Purple is obtained from chromium iodide - which may cause bronchial asthma or other forms of allergy.
Silver is obtained from aluminum bromide - a known carcinogenic.
Black is obtained from lead oxide - may cause renal failures or learning disability. 
Red is obtained from mercury sulphite - may cause skin cancer or Minamata disease (mental retardation, paralysis, impaired vision...) 
Shiny colors are a result of powdered glass being added to the colors. 
Green color is obtained from copper sulphate -which may cause allergies in eye or even temporary blindness.

People must realize that the colors have been added to Holi to make the festival more joyous and enjoyable and not to cause inconvenience to others. So, next time you play with colors use good quality or natural colors and play according to the convenience of others.

Make herbal colors at home:
For orange: Dip 500 gm tesu flower in 10 liters of hot water for 12-15 hours. It should ideally be done a day before Holi.
For blue: Grate beetroot and black carrot and dip them in 10 liters of hot water for 12-15 hours. This should also be done a day prior to Holi.
For pink: Dip 500 gm rose petals in 10 liters of hot water one day before the Holi. It is then ready to use on the festival day.
For red: Powder dry red hibiscus flowers and use them as gulal. You can also soak these flowers in water overnight to get wet color.
For green: Mehendi only leaves behind its color when it's wet and dry Mehendi can be brushed off very easily, so this can be used as an option for green. Leaves of Gulmohur (delonix regia) can also be dried and powdered to attain a fine green color.

Holi is definitely a time to let loose and enjoy the company of family and friends to the hilt. So, make this festival even more exciting and safe with organic colors. You would not want to visit a doctor after the festival would you so be safe and play a colorful yet safe Holi. Enjoy!



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Dr. Rajan Pandey  
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Wednesday 9 March 2016

नारी जिसे अब तक सदृशता नहीं मिल पायी पर पूरा संसार उसमें समय है!: Women's day

12 सितंबर 1996 को महिला आरक्षण बिल संसद में पेश हुआ था। आज तक यह लोकसभा में पास नहीं हो सका, जबकि यह बिल 9 मार्च 2010 को राज्य सभा में पास हो गया था। तमाम राजनीतिक दल पंचायतों से लेकर निगमों तक में महिलाओं के आरक्षण को शानदार कामयाबी की तरह पेश करते हैं, मगर संसद और विधानसभा के नाम पर आकर तर्क-वितर्क के बहस में बहस उलझा देते हैं। जब भी महंगाई के खिलाफ प्रदर्शन करने होता है तब राजनीतिक दलों की महिला मोर्चा क्यों सक्रिय कर दी जाती है। कहीं हमारे राजनीतिक दल औरतों को राजनीति में भी घरेलू औरत की तरह तो स्थापित नहीं करना चाहते? अगर सच में राजनीतिक इच्छाशक्ति होती तो वे महिला उम्मीदवारों को टिकट देते। संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी देने के सवाल पर भारत का स्थान 108 वां हैं। पाकिस्तान 66वें स्थान और नेपाल 24वें स्थान पर होते हुए इस मामले में भारत से कहीं आगे है। देश में 18 से 19 साल के इस बार जितने भी नए मतदाता हैं, उनमें से 41 फीसदी लड़कियां हैं।भारत के सभी राज्यों में से सिर्फ़ चार राज्यों में नारी-नेतृत्य की सरकार है, आज तक सिर्फ़ एक हे महिला राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुई है, सिर्फ़ एक ही महिला प्रधानमंत्री रही है।क्यों?

नारी-शक्ति को भारतीय संस्कृति में महान स्थान दिया गया है। आदि शक्ति जिनके गर्भ से पूरी दुनिया का जन्म हुआ है और वह पूरी दुनिया की शक्ति का स्त्रोत है। नारी सशक्तिकरण के नारे के साथ एक प्रश्न उठता है कि "क्या महिलाएँ सचमुच में मजबूत बनी है?" और “क्या उसका लंबे समय का संघर्ष खत्म हो गया है?”। राष्ट्र के विकास में महिलाओं की सच्ची महत्ता और अधिकार के बारे में समाज में जागरुकता लाने के लिये मातृ दिवस, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आदि जैसे कई सारे कार्यक्रम सरकार द्वारा चलाये जाते रहे गये है। महिलाओं को कई क्षेत्र में विकास की जरुरत है। भारत में उच्च स्तर की लैंगिक असमानता है, जहाँ महिलाएँ अपने परिवार ही नहीं बल्कि बाहरी समाज के भी बुरे बर्ताव से भी पीड़ित है। भारत में अनपढ़ो की संख्या में महिलाएँ सबसे अव्वल है।

उचित शिक्षा और आजादी का उनको कभी भी मूल अधिकार नहीं दिया गया, ये पीड़ित है जिन्होंने पुरुषवादी देश में हिंसा और दुर्व्यवहार को झेला है। वैश्विक लिंग गैप सूचकांक के अनुसार, आर्थिक भागीदारी, उच्च शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य के द्वारा समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिये भारत में कुछ ठोस कदम उठाने की मूल जरुरत है। जरुरत है कि महिला सशक्तिकरण की आरम्भिक स्थिति से निकालते हुए सही दिशा में तेज गति से आगे बढ़ा जाये।

लैंगिक समानता को प्राथमिकता देने से पूरे भारत में महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा मिलेगा। महिला सशक्तिकरण के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये इसे हर एक परिवार में बचपन से प्रचारित व प्रसारित करना चाहिये। ये जरुरी है कि महिलाएँ शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रुप से मजबूत हो। चूंकि एक बेहतर शिक्षा की शुरुआत बचपन से घर पर हो सकती है, महिलाओं के उत्थान के लिये एक स्वस्थ परिवार की जरुरत है जो राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक है। आज भी कई पिछड़े क्षेत्रों में माता-पिता की अशिक्षा, असुरक्षा और गरीबी की वजह से कम उम्र में विवाह और बच्चे पैदा करने का चलन है। महिलाओं को मजबूत बनाने के लिये महिलाओं के खिलाफ होने वाले दुर्व्यवहार, लैंगिक भेदभाव, सामाजिक अलगाव तथा हिंसा आदि को रोकने के लिये सरकार कई सारे कदम उठा रही है।

महिलाओं की समस्याओं का उचित समाधान करने के लिये महिला आरक्षण बिल-108वाँ संविधान संशोधन का पास होना बहुत जरुरी है ये संसद में महिलाओं की 33% हिस्सेदारी को सुनिश्चित करता है। दूसरे क्षेत्रों में भी महिलाओं को सक्रिय रुप से भागीदार बनाने के लिये कुछ प्रतिशत सीटों को आरक्षित किया गया है। सरकार को महिलाओं के वास्तविक विकास के लिये पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों में जाना होगा और वहाँ की महिलाओं को सरकार की तरफ से मिलने वाली सुविधाओं और उनके अधिकारों से अवगत कराना होगा जिससे उनका भविष्य बेहतर हो सके।

कानूनी अधिकार के साथ महिलाओं को सशक्त बनाने के लिये संसद द्वारा पास किये गये कुछ अधिनियम है - एक बराबर पारिश्रमिक एक्ट 1976, दहेज रोक अधिनियम 1961, अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम 1956, मेडिकल टर्म्नेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1987, बाल विवाह रोकथाम एक्ट 2006, लिंग परीक्षण  तकनीक (नियंत्रक और गलत इस्तेमाल के रोकथाम) एक्ट 1994, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन शोषण एक्ट 2013।

कन्या भ्रूण हत्या क्या है?

अल्ट्रासाउंड स्कैन जैसी लिंग परीक्षण जाँच के बाद जन्म से पहले माँ के गर्भ से लड़की के भ्रूण को समाप्त करने के लिये गर्भपात की प्रक्रिया को कन्या भ्रूण हत्या कहते हैं। कन्या भ्रूण या कोई भी लिंग परीक्षण भारत में गैर-कानूनी है। ये उन अभिवावकों के लिये शर्म की बात है जो सिर्फ बालक शिशु ही चाहते हैं साथ ही इसके लिये चिकित्सक भी खासतौर से गर्भपात कराने में मदद करते हैं।

कन्या भ्रूण हत्या के कुछ मुख्य कारण हैं:

आमतौर पर माता-पिता लड़की शिशु को टालते हैं क्योंकि उन्हें लड़की की शादी में दहेज़ के रुप में एक बड़ी कीमत चुकानी होती है।
ऐसी मान्यता है कि लड़कियां हमेशा उपभोक्ता होती हैं और लड़के उत्पादक होते हैं। अभिवावक समझते हैं कि लड़का उनके लिये जीवन भर कमायेगा और उनका ध्यान देगा जबकि लड़की की शादी होगी और चली जायेगी।
ऐसा मिथक है कि भविष्य में पुत्र ही परिवार का नाम आगे बढ़ायेगा जबकि लड़किया पति के घर के नाम को आगे बढ़ाती हैं।
अभिवावक और दादा-दादी समझते हैं कि पुत्र होने में ही सम्मान है जबकि लड़की होना शर्म की बात है।
परिवार की नयी बहु पर लड़के को जन्म देने का दबाव रहता और इसी वजह से लिंग परीक्षण के लिये उन्हें दबाव बनाया जाता है और लड़की होने पर जबरन गर्भपात कराया जाता है।
लड़की को बोझ समझने की एक मुख्य वजह लोगों की अशिक्षा, असुरक्षा और गरीबी है।
विज्ञान में तकनीकी उन्नति और सार्थकता ने अभिवावकों के लिये इसको आसान बना दिया है।

निष्कर्ष:

भारतीय समाज में सच में महिला सशक्तिकरण लाने के लिये महिलाओं के खिलाफ बुरी प्रथाओं के मुख्य कारणों को समझना और उन्हें हटाना होगा जो कि समाज की पितृसत्तामक और पुरुष प्रभाव युक्त व्यवस्था है। जरुरत है कि हम महिलाओं के खिलाफ पुरानी सोच को बदले और संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों में भी बदलाव लाये। नारी सशक्तिकरण का असली अर्थ तब समझ में आयेगा जब भारत में उन्हें अच्छी शिक्षा दी जाएगी और उन्हें इस काबिल बनाया जाएगा कि वो हर क्षेत्र में स्वतंत्र होकर फैसले कर सकें। महिला सशक्तिकरण के सपने को सच करने के लिये लड़िकयों के महत्व और उनकी शिक्षा को प्रचारित करने की जरुरत है।


Sunday 7 February 2016

Are Designer Babies the next 'bazaar commodity'?


Eugenics is steppingstone to Genetically Modified babies which is the future of consumer based eugenics. But this raises serious concerns over shaky moral platform that promise genetic modifications to ameliorate. How is it better than the theories of Negative or Positive eugenics and its basic science 'Euthenics'? 

As a first, last week Britain granted its first official research license to genetically modify human embryos to a pilot project that aims to give hope to women struggling to conceive. This eccentric decision makes Britain one of the first countries in the world to grant such authorizations.
Which is raising eyebrows all over the world for ethical concerns about "designer babies". A designer baby is a result of genetic screening or genetic modification. Embryos may be screened prior to implantation, or possible use of gene therapy techniques in order to create desired traits in a child. Basically it has something to do with adulteration in genetic makeup of an unborn baby. 

Researchers explained that modified embryos have to be destroyed within 14 days and will not be implanted in a woman they will only examine embryos in their first few days. Such research is important for understanding how a healthy human embryo develops and it will certainly enhance our understanding of IVF success rates. The embryos that will be used are donated spares that are recovered while preparing a female for In-vitro fertilization (IVF) treatment and don't need them once the procedure is completed. The scientists would use CRISPR-Cas9 technique which allows scientists to insert, remove or correct DNA. The technique could also be used to treat illnesses like sickle cell diseases, cystic fibrosis and some cancers.

Are we entering Hitler's den again??

Ethnical concerns over genetic modification to be similar to Nazi or American Eugenics Movement is in the air. Disturbing the genetic makeup of an individual which is a work of nature will it prove a boon or a bane. This could create a class divide between designer and non designer babies. Moreover it is decision that is made by one generation for future a generation which has no vote to say that it would want a change or not in genetic makeup. It is disturbing to think of possible ways things can turn sour with the use of the technology to improve the DNA constitution. While it is certain that the prospect of gene editing in human embryos raises series of ethical issues and challenges but this problem needs to dealt with in a balanced manner under strict regulations and guidelines so that the company's don't make profit making strategies out of what could be of great help to the mankind.

Wednesday 3 February 2016

भारत एक सहिष्णु देश:

"हाँ मैं भारत में ख़ुद को सुरक्षित महसूस करता हूँ।"

भारत दुनिया की सांस्कृतिक रूप से सबसे विविध देश है। भारत एक नितांत धार्मिक देश है जहाँ हर धर्म का अपना मान-सम्मान और ठौर है। यह शायद एकमात्र ऐसा देश होगा जहाँ चार धर्मों की उत्पत्ति हुई हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं सिक्ख धर्म। भारत ऐसा देश है जहाँ असाम्प्रदायिकता (धर्म-निरपेक्षता) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संविधान में प्रतिष्ठापित किया गया है। यहाँ एक विचित्र वाक् युद्ध छिड़ी हुई है-
"क्या भारत-दुनिया की सबसे बड़ा लोकतंत्र एक असएहिष्णु देश बनता जा रहा है? या ये एक तरह का  नाशकरी सियासी जुमला है!"

अभी हमारी दशा 'बेबल के मीनार' के जैसी है जहाँ प्रजा एक ऐसी दशा में है जहाँ सिर्फ़ भ्रांति है और लोगों को स्वार्थ सिद्ध करने के लिए बरगलाया जा रहा है। अवमानक विचारधारा और अश्लील राजनीति प्रभावशाली लोगों की चाल बन गई है। अगर दादरी हत्याकांड की  बात करे तो वहाँ एक आदमी की बेक़ाबू भीड़ ने हत्या इस लिए कर दी क्यूँ की अफ़वाह उड़ी की उसने गौ माँस खाया है और अपने घर पर रखा भी है। यह एक पथभ्रष्ट एवं मानवता के ऊपर तीक्ष्ण प्रहार है।कोई भी धर्म अपने अनुयायियों को  अधर्म के मार्ग पर चलना या असहनशील होना नहीं सिखाता। यह तो ऐसे लोग सिखाते है जो अपने उल्लू दूसरों से सीधे कराते हैं मासूम लोगों को बरगला कर। मेरे और आपके जैसे आम लोग ऐसा जघन्य
अपराध कर ही नई सकते, ऐसे लोग ना किसी जाती प्रधान के होते है ना हे इनका कोई धर्म होता है, ये तो बस मुजरिम होते है और इनका धर्म-अधर्म  होता है। ये हमारे व्यवस्था का दोष है की हम जब इन घटनाओं का वर्णन सुनते है तब उन्मे ऐसे लोगों का धर्म भी प्रचारित किया जाता है, जो निदनिया है। ऐसी घटाए जब उजागर होती है तब धर्म की बात को लेकर विवाद पैदा होता है और तब हम धार्मिक असहिष्णुता की बात करने लगते हैं। 
कई राजनेता इस बात पर अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकते हुए टीवी चैनलों पर दिख जाएँगे। आरोप और प्रत्यारोप लगाए जायेंगे पर निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता। बहुत से राजनेता दादरी कांड के पश्चात वाह पहुँचे सबने अपने अपने हिसाब से इस परिस्थिति का फ़ायदा उठाया और चले गए।मेरा प्रश्न यह है की- क्या किसी ने बिना गणित किए हुए उस परिवार का दुःख बाटने की सच में कोशिश की? वहाँ देश भर से जिन्हें हम धर्मनिरपेक्ष या सेक्युलर ख़याल के नेता या पार्टियाँ कहते है उसके नुमाइंदे वहाँ आए अपनी-अपनी चिप्पी लगाई और चल दिए। क्या इसे सही मायने में सेक्युलरिज़म कहेंगे? सेक्युलरिज़म तो उस चीज़ को कहते जब सब सही मायने में अपने धर्मों को भूल कर सारी जातियों को भूल का वहाँ एक मनुष्य का दर्द बाटने की भावना से जाते। 

दूसरी मुद्दा जो बड़ी हीं तेज़ी से फैला और पूरे देश का ध्यान अपने ओर खींचा वो है  अवॉर्ड वापसी का। जिसमें देश के बुद्धिजीवी और ख़ास कौशल वाले लोग अपने सम्मान और संज्ञा लौटा रहे थे। क्या हमें ज़्यादा महत्वपूर्ण विषय जैसे की ग़रीबी और भूखमरी कैसे मिटाए ये छोड़ ऐसी बातों पर विवाद खड़ा करना शोभा देता है। यह बात उतनी ही सच है कि हमारे देश में अपने विचार व्यक्त करने की पूरी छूट है और हमें उन सारे बुद्धिजीवियों का सम्मान करना चाहिए और हर सम्भव कोशिश होनी चाहिए कि उनकी समस्या का हल हो। बुद्धिजीवियों का भी ये कर्तव्य बनता है की जिस मीडिया, सोशल नेट्वर्क, ब्लोग्स का सहारा लेकर अपने मुद्दे उठा रहे है उनका इस्तेमाल वे लोगों की समस्या हल करने के लिए करे निजी या राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठ कर। अगर ऐसे लोग  कोशिश करे तो समाज का चेहरा बदलने में एक बड़ी भूमिका अदा कर सकते है, भाईचारा, सामूहिक शांति और सद्भाव को प्रोत्साहित करे और सम्प्रदायिकता के जाल को तोड़ एक तनाव मुक्त समाज का नवनिर्मान करे। आम जानता का भी एक दायित्व है के इंसानियत पे भरोसा करे और सामाजिक तत्वों से परहेज़ करे।
ऐसी सारी घटाए भारत के गरिमा को अंतरष्ट्रिया स्तर पर चोट पहुँचती हैं। अगर देश की अवाम असहिष्णु नहीं हो तो कहा से कुछ लोग उठ कर साम्प्रदायिक ताक़त को सबल और मानवता को दुर्बल कर सकेंगे। अगर जन-मन से जाग जाए तो हमारी क़ौमी एकता को तोड़ने की ताक़त किसी के पास नहीं है। भारत ना कभी असएहिष्णु था, ना है, और ना कभी रहेगा। 

डॉ. राजन पांडेय