Saturday 28 May 2016

कोचिंग इन्स्टिटूट्स में घुन की तरह पिसते छात्र और एक असमर्थ शिक्षा प्रणाली!


एंट्रन्स की कोचिंग अब यह कोई विकल्प नहीं अनिवार्यता है; यह लगभग बाध्य हो गया है की स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे कोचिंग क्लॉसेज़ जाए। बच्चे आजकल पाठ्यक्रम की अवधारणाओं के बारे में आश्वस्त महसूस नहीं करते और शिक्षक स्कूल में बच्चों को तवज्जु नहीं देते यह भी आश्चर्यजनक नहीं ताकि प्राइवट टूइशन की भीड़ कम ना हों। आपने नीट इग्ज़ाम के बारे में सुना ही होगा? कई अभिभावक परेशान भी होंगे अपने बच्चों के भविष्य को लेकर और कई छात्र असमंजस में होंगे की उनका क्या होगा!

आजकल मेडिकल और आइ.आइ.टी. में दाख़िला पाने की होड़ मची हैं और इस प्रवृति का मोटा फ़ायदा उठाना नामी कोचिंग क्लास बख़ूबी जानते है। छोटे या बड़े सभी शहरों में इस तरह के इन्स्टिटूट्स मिल जायेगा जो बच्चों के सुनहरे भविष्य के लुभावने वादे करते हैं। हर साल देश भर से 50,000 से अधिक छात्र अभिभावकों के दबाव के तहत, कोटा के कोचिंग संस्थानों में दाखिला लेते है। नदी के किनारे बस शहर बहु ​​अरब डॉलर कोचिंग उद्योग की राजधानी बन गया है। छात्र छोटे-छोटे कमरों में रहते है और दिन के लगभग 16 घंटे, कक्षाओं में पढ़ने या प्रश्न पत्रों से निपटने में खर्च करते है।

माता-पिता अपने बच्चों के समृद्धि के लिए, उन्हें फास्ट ट्रैक पर लाने और बेहतरीन शैक्षिक संस्थानों में उन्हें पढ़ता देख पाने के लिए सभी यथासंभव प्रयत्न करते हैं। एक जिन जो इस आकांक्षा को एक उद्योग में बदल देता है और पैदा होते हैं 'कोचिंग क्लासेस'। यह औपचारिक रूप से एक उद्योग के रूप में मान्यता प्राप्त तो नहीं है परंतु कोचिंग सेक्टर एडीबी की रिपोर्ट के अनुसार अरबों डॉलर से अधिक मूल्य का होने का अनुमान लगाया गया है। कोचिंग उद्योग भी रोजगार उत्पन्न करता है। यह अनियमित और अधिकांश भाग के लिए असंगठित है लेकिन कितने लोगों का अनुमान लगाना मुश्किल है।

आज कल रोज़ ही किसी बच्चे ख़ुदकुशी की ख़बर आती है तब हम अपने टीवी चैनल चेंज करने के लिए रिमोट की तलाश करते है कि कही ऐसी ख़बर हमारे बच्चे ना सुन ले और उनपे ग़लत प्रभाव पड़े। पर क्या यह करना पर्याप्त है?
हमारी शिक्षा प्रणाली इतने दुर्बल है कि उसके भार तले बच्चों का दम घुटने लगा है। सिर्फ़ कोटा ही नही बल्कि पूरे देश में बच्चे एंट्रन्स इग्ज़ैम के बोझ से झुके हुए है। बच्चे इस भार को उठाने में अक्षम रहते है तो अभिभावक भी सोचते है की कोचिंग ही एक मात्र पर्याय है। 
एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2007-08 में ग्रामीण भारत में रहने वाले छात्रों ने 1,456 रुपये भुगतान कियाऔर शहरी भारत में निजी कोचिंग के लिए 2349 रुपये प्रत्येक माह भुगतान किया। 

अत्यधिक फीस

शहरी केंद्रों में ट्यूशन फीस-कोचिंग क्लास के स्तर पर और स्थान के आधार पर बदलती हैं। 
प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए कोचिंग इन्स्टिटूट्स फीस के तौर पर मोती रक़म वसूलते है जो 1.2 लाख रुपये सालाना से लेकर दो साल के लिए रुपये 2.8 लाख तक हो सकती है।

अंततः अमीर और वंछित छात्र  में जनसंख्या विभाजित; यह शिक्षा प्रणाली शिक्षकों को कम जिम्मेदार बनाती है। भारतीय स्कूली शिक्षा प्रणाली, तेजी से बढ़ते कोचिंग उद्योग के कारन और पीछे जा रही है। इस सब में घुन की तरह पूस रहा है तो वह है छात्र।

By:
Dr. Rajan Pandey
M.B.B.S., M.D. Radio-Diagnosis(schol.),
Blogger& a Columnist.
Twitter: @rajanpandey001
Blogspot: http://drrajanpandey.blogspot.com/
Website: http://www.drrajanpandey.in/